Mahashivratri 2024 mahadev, bada dev, shiv shankar

वन्दे बोधमयं नित्यं गुरु , शंकर रूपिणम । यमाश्रितो हि वक्रोपि , चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते।।

भारतीय संस्कृति एक वृक्ष के समान है , जिसका दृश्य रूप हमे फूल, पत्ती, फल , तना एवं शाखाओं के रूप में दिखाई देता है, उसका अदृश्य रूप मूल या जड़ है यही जड़ इस भारत देश की सनातन/ हिंदू संस्कृति का आधार/ गुणधर्म/ऊर्जा है
यही गुणधर्म प्रकृति को संचालित करता है , जैसे जल का गुणधर्म जीवन देना है चाहे वह मानव हो, वृक्ष हो या पशु।
यही ऊर्जा के केंद्र देव या देवता है। प्रकृति की हर शक्ति / ऊर्जा के केंद्र में महादेव है।
महा अर्थात बड़ा/ विशाल है , इसीलिए बनवासी समाज महादेव को बड़ादेव कहते है, जो निराकार है, त्रिशुलधारी है। बड़ादेव, महादेव के समान एक प्राकृतिक शक्ति है जिसमे भूमि, जल, आकाश,वायु और अग्नि आती है, जो सर्वोच्च शक्ति है जिसे कोई मिटा नही सकता।
सिंधु घाटी सभ्यता में प्राप्त एक मुहर में तीन मुखों वाली आकृति ,चूड़ियां पहने है और सींगदार मुकुट सिर पर है और मूलबंधासन मुद्रा में जो 4 जंगली जानवरों हाथी , गैंडा , बाघ और भैंसा से घिरा हुआ है। इसी तरह की मूर्ति एलोरा, कांची के कैलाशनाथ मंदिर एवं चोल कला में दिखाई देती है। इस मुहर पर अंकित शिव गोंड शैली में है , बस्तर के मारिया गोंड अभी भी अपने देवताओं को सींग वाली टोपी से सजाते है, शिवजी की भुजाएं चूड़ियों से ढंकी है , यह शिल्प छत्तीसगढ़ के जनजाति शिल्प डोकरा शिल्प से मिलता है।सिंधु की अनेक मुहरों पर शिव को वृक्ष की शाखा के रूप में , सांपों के बीच में , बलि देते जानवर के साथ दिखाया गया है।वेदों में शिव को अग्नि एवं रुद्र के रूप में पूजा गया है ।
ऋग्वेद में शिव को अग्नि वनस्पति अर्थात जंगल के भगवान के रूप में एवं एक अन्य सूक्त में एक हजार शाखाओं वाले सदाबहार , दैदीप्यमान वृक्ष के रूप में प्रशंसा की गई है । वृक्ष का संबंध बड़ादेव से भी है , जो साज वृक्ष पर निवास करता है।
वैदिक काल में निरुद्ध पशुबंध यज्ञ होता था, जिसमे एक बकरी का बलिदान 6 माह में या वर्ष में एक बार होता था , यहीं प्रथा बड़ादेव को बकरे की बलि के रूप में देखने को मिलती है। गोंडो का यज्ञ अनुष्ठान , शतपथ ब्राह्मण के यज्ञ अनुष्ठान से मिलता जुलता है।
हड़प्पा की एक मुहर में शिव एवं एक व्यक्ति को भैंस पर भाला चलाते हुए दिखाया गया है, अनुष्ठान में भैंस की बलि देने की परंपरा भारत की अनेक जनजातियों में प्रचलित है।
अंत्येष्टि संस्कार का संबंध महादेव अर्थात बड़ादेव से है । गोंडो का मानना है कि आत्मा मृत्यु के बाद आत्मा बड़ादेव में विलीन हो जाती है, यही कारण है कि गोंड सहित कई महापाषाण संस्कृतियों में समाधि के ऊपर एक स्तंभ खड़ा करते है , जो महादेव का प्रतीक है
महादेव या बड़ादेव इस ब्रह्माण्ड के रचियता है। बड़ादेव की कथा का संबंध सात भाईयो की कहानी से है जिसका अंकन हड़प्पा की मुहरों पर भी है, बड़ादेव को प्रसन्न करने के लिए मुर्गा, महुए की शराब चढ़ाना साथ ही वाद्ययंत्र के द्वारा उन्हें प्रसन्न करने की विधि , महादेव या भैरव की पूजा के समान है।
महादेव कैलाश पर्वत पर निवास करते है , गोंड किवदंतियों के अनुसार बड़ादेव का निवास हिमालय में धवलगिरी चोटी पर है ।
गोंड लोग यह मानते है कि सभी देवताओं का जन्म महादेव एवं पार्वती की मिलन से हुआ है । इसी तरह बड़ादेव को सल्ला गांगरा अर्थात नर एवं मादा कहा जाता है, इसी से सारी शक्तियां उत्पन्न है , इनके बिना पृथ्वी पर किसी भी जीव की उत्पत्ति संभव नहीं है। यही महादेव का अर्धनारीश्वर रूप बड़ादेव के सल्ला गांगरा के समान है। गोंडी साहित्य के अनुसार इस धरती का राजा शंभू शेख है जिसे शंभू या गोटा या महादेव कहते है।
बड़ादेव की पूजा विधि में गोबर को लीप कर ,हल्दी या आटे से चौक पूरना फिर उस पर पटा रखकर सफेद कपड़ा बिछाना है , उस पटे पर हल्दी की 5 गांठे , चावल के दाने, नारियल फोड़ना बेलपत्र फूल चढ़ाना आदि ,हिंदू समाज से ही जुड़ी हुई है। परमशक्ति फड़ापेन की कथा में दोहे का प्रारंभ निम्न प्रकार से होता है
शिव गौरा को सुमरि गुरु देवगन को सिर नाय।
इसी तरह बूढ़ादेव की आरती में महादेव का उल्लेख मिलता है जैसे
दिव्यशक्ति बुध देव , जगत नियंता देव।
कोयामुरी दीपम में शंभू भय महादेव।।
वनवासी समाज में महादेव पूजा आज भी प्रचलित है,मध्यप्रदेश के पहाड़ी इलाकों में गोंड गढ़ है जहा अनेक शिवमन्दिर है जैसे पचमढ़ी में चौरागढ़ महादेव मंदिर जो एक महत्वपूर्ण गोंड तीर्थ है जहा त्रिशूल समर्पित किए जाते है।
वनवासियों में सरहुलबाहा पूजा वास्तव में शिव पार्वती का पूजन है, संथाल जनजाति मराबंगरू पहाड़ की पूजा शिव के प्रतीक के रूप में करती है, सतपुड़ा पर्वत में महादेव का धाम तिलक सिंदूर है जहा महादेव की प्रथम पूजा का अधिकार गोंडो के मुखिया प्रधान को है यहां महाशिवरात्रि को महादेव का अभिषेक सिंदूर के किया जाता है, झारखंड के वनवासी सरना महादेव की पूजा अच्छी वर्षा के लिए करते है, महादेव को भील अवतार वाला भी माना जाता है ऐसे अनेक उदाहरण है जो महादेव और बड़ादेव को एक मानते है।
वनवासियों का संबंध राम से भी है । गोण्डों में अपनी बाह पर हनुमान की तस्वीर गुदवाने की एक परंपरा है. उनका मानना है कि इससे उन्हें काफी शक्ति मिलती है.’

गुहा निषाद राजा थे, जिन्होंने राम, लक्ष्मण और सीता को गंगा पार काराने के लिए नावों और मल्लाहों की व्यवस्था की थी. लेखक ‘गुहा यानी निशादराज गंगा के किनारे रहने वाले जनजातीय लोगों के मुखिया थे. वे काफी ताकत और असर वाले नेता थे और वे राम का स्वागत करने वाले पहले व्यक्ति थे. राम का गर्मजोशी से स्वागत करने के बाद गुहा उन्हें उत्तम किस्म का भात और कई मिठाइयां परोसते हैं. इसके बाद वे राम के आगे दंडवत लेट जाते हैं और राम उन्हें उठाकर गले लगा लेते हैं.रामायण की दूसरी लोकप्रिय पात्र है सबरी, मुनि मतंगा की देखभाल करने वाली. वह अरण्यकांड में सामने आती हैं, जो कि वाल्मीकि के महाकाव्य का तीसरा खंड है. तमिल कवि की ‘रामावतारम’ में भी सबरी के द्वारा राम-लक्ष्मण के स्वागत का उल्लेख है.छोटा नागपुर झारखंड के बिरहोर जनजातियों का रामायण कहता है कि भगवान सिंगबोगा ने पृथ्वी का निर्माण किया और उसे राजा रावण को सौंप दिया। किंतु रावण आतताई बन गया और मानव समूह को मारने लगा। तब मानव की दुर्दशा से द्रवित होकर भगवान ने वचन दिया धीरज रखो मैं किसी मानव कोख से जन्म लुगा और रावण का वध करूंगा।गोंड जनजातिअपने समाज में उच्च बताने के लिए राजा राम से अपना संबंध बताते है। उनकी विश्व निर्माण की कथा कहती है कि महादेव और पार्वती से उत्पन्न प्रथम मानव गोंड था। रावण राम के युद्ध के समय रावण के राज्य के समीप एक गोंड दंपति रहती थी जिसे पूर्व जन्म में महादेव का श्राप था, कि लंका में जाने समय जब तक राम का चरण नहीं धोयेगे तब तक वह पुत्रों को नहीं पाएंगे। गोंड पति पत्नी राम की प्रतीक्षा करते रहे और राम के आगमन के बाद उसकी पूजा की उसके पैर धोए और चरणोंदक ग्रहण कीया। राम ने उन्हें तीन पुत्रों का आशीर्वाद दिया और “रावण वंशी” गोंड की पदवी दी। राम रावण से युद्ध के लिए आगे बढ़े और विजय हुये। सीता सहित लंका से वापस आते समय राम ने कुछ गोंडो को अपने साथ लाये यह “सूर्यवंशी गोंड” कहे जाने लगे। अपने पूर्वजों को राम का समकालीन बताना, यह सिद्ध करता है कि रामकथा में जनजातियों के जीवन में कितने अंदर तक प्रवेश किया है।
जनजातीय समाज के प्रतिनिधि कहते हैं कि वे सनातनी ही हैं। उनका कहना है कि भगवान राम और शिव पार्वती उनके आराध्य ही नहीं, बल्कि पूर्वज भी हैं। जनजातीय समाज यह भी मानता है कि अंग्रेजों द्वारा अंग्रेजी में लिखित दस्तावेजों के आधार पर वामपंथी इतिहासकारों ने पूरे भारत के जनजातीय समाज को बांटने का काम किया है।
पूर्व लोकसभा अध्यक्ष करिया मुंडा ने कहा कि सनातन ही देश का प्राचीनतम धर्म है और जनजातीय समाज उसके वाहक हैं। प्रकृति की पूजा ही सनातन है और उसी सनातन से सभी मत—पंथ निकले हैं
भगवान बिरसा मुंडा के पौत्र सुखराम मुंडा ने कहा कि भगवान बिरसा मुंडा अपनी संस्कृति और जनजातीय समाज को बचाने के लिए अंग्रेजों और पादरियों से लड़ते रहे,लेकिन आज उनके विचारों की उपेक्षा हो रही है। हमारी पूजा—पद्धति और परंपराओं को कुछ विदेशी ताकतों ने समाप्त करने का काम किया है।

लेखक:- दीपक द्विवेदी

सदस्य जनजाति कलयाण केंद्र महाकौशल

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